हिंदू धर्म में हलषष्ठी व्रत का अत्यंत विशेष महत्व है। हिंदू पंचांग के अनुसार, प्रतिवर्ष भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को यह व्रत रखा जाता है। इसे विभिन्न क्षेत्रों में बलदेव छठ, हरछठ, हलछठ, ललही छठ, रांधण छठ, तिनछठी और चंदन छठ जैसे नामों से जाना जाता है। इस दिन श्रीकृष्ण के बड़े भाई, भगवान बलराम का जन्म हुआ था, और इसी कारण इस दिन बलराम जी की पूजा करने का विशेष विधान है।
महिलाओं ने रखा व्रत: संतान की खुशहाली के लिए की पूजा
हरछठ का व्रत खासतौर पर महिलाओं द्वारा संतान सुख और उनकी खुशहाली के लिए किया जाता है। कवर्धा और तमरूवा की महिलाएं सुबह से ही इस व्रत के लिए तैयारियां करती हैं। सगरी की सजावट और पूजन स्थल की तैयारी में महिलाओं ने पूरे विधि-विधान का पालन किया। ग्राम पुरोहित श्री विठ्ठल शर्मा जी ने विधिवत मंत्रोच्चार और पूजा विधि के माध्यम से इस पूजन को संपन्न कराया।
इस व्रत के दौरान, महिलाओं ने महुआ का सेवन और उससे दातुन करने का विशेष महत्व माना। सुबह से ही महिलाएं व्रत की तैयारियों में जुट गईं, और दिनभर पूजा-अर्चना के साथ यह पावन पर्व मनाया।
हलषष्ठी व्रत की पूजा विधि और धार्मिक अनुष्ठान
इस पर्व के दिन, महिलाओं ने अपने-अपने घरों में और सामूहिक स्थानों पर एकत्रित होकर सगरी की सजावट की। सगरी को विशेष रूप से मिट्टी के खिलौने, बेल पत्र, महुआ, फूल, श्रृंगार का सामान और भैंस के दूध, दही, और घी से सजाया गया। पूजा स्थल पर बलराम जी की मूर्ति के साथ छठ माता की भी विधिवत पूजा की गई।
महिलाओं ने पूजा के दौरान सगरी में दूध, दही, और घी अर्पण किया और सामूहिक रूप से हलषष्ठी की कथा सुनी। इसके बाद आरती के साथ पूजा संपन्न की गई। पूजन के बाद महिलाओं ने सगरी से जल और प्रसाद लिया और अपने बच्चों को तिलक लगाकर आशीर्वाद दिया।
इस व्रत की एक विशेष परंपरा है, जिसमें महिलाएं पूजा के बाद अपने बच्चों की कमर पर छ: बार कपड़े का टुकड़ा स्पर्श कराती हैं, जिसे "पोती मारना" कहा जाता है। मान्यता है कि इससे बच्चों को दीर्घायु और स्वस्थ जीवन का आशीर्वाद मिलता है।
फलाहार और पूजा के बाद का अनुष्ठान
हलषष्ठी व्रत के दिन महिलाएं फलाहार का पालन करती हैं। इस दिन महुआ के साथ-साथ पसहर चावल का सेवन विशेष रूप से किया जाता है। महिलाएं सूर्यास्त से पहले फलाहार करती हैं और उसके बाद व्रत तोड़ती हैं। इस दिन पूजा में इस्तेमाल किए गए प्रसाद को महिलाएं आपस में बांटती हैं और घर ले जाती हैं।
कवर्धा और तमरूवा के गांवों में इस व्रत को लेकर ग्रामीणों में विशेष उत्साह देखने को मिला। यह पर्व न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि ग्रामीण समाज की सांस्कृतिक धरोहर को भी सहेजता है। महिलाओं ने इस पर्व के माध्यम से अपनी संतान के सुख-समृद्धि और दीर्घायु की कामना की, जिससे इस पर्व का महत्व और भी बढ़ गया।